अशांत घाटी

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पुलवामा की घटना, जहां एक कार बम ने 14 फरवरी को अर्धसैनिक बलों के एक काफिले पर हमला किया, जिसमें 40 सीआरपीएफ जवान शहीद हो गए। पिछले 30 वर्षों में इस तरह की सबसे भयानक घटना होने के नाते, यह केवल भारत की भूमि पर हमला नहीं है, बल्कि वाहन विस्फोट के माध्यम से आत्मघाती विस्फोट की तालिबानी रणनीति की वापसी का यह रूप सरकार के लिए एक सीधी चुनौती भी है।सरकारी अधिकारियों के अनुसार, पाकिस्तान के जैश-ए-मोहम्मद (जैम) ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है।भारत के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी करते हुए कहा कि, इसके नेता, मसूद अजहर, “… को भारत में और अन्य जगहों पर हमले करने के लिए…..पाकिस्तान सरकार द्वारा पूर्ण स्वतंत्रता दी गई है”।मसूद का आतंकवाद में शामिल होने का इतिहास बहुत पुराना रहा है। 1999 में, अपहृत इंडियन एयरलाइंस की उड़ान में बंधक नागरिकों को छुड़ाने के बदले उसे भारतीय जेल से रिहा कर दिया गया।आत्मघाती हमलावर की पहचान पुलवामा के गुंडीबाग गांव के निवासी आदिल अहमद डार के रूप में की गई; जोकि एमएस धोनी और भारतीय क्रिकेट टीम का बड़ा प्रशंसक था। हालांकि भारत में शुरुआती प्रतिक्रियाओं में मृतकों के लिए दुःख एवं पाकिस्तान के प्रति गुस्से पर ध्यान केंद्रित किया गया, लेकिन कुछ व्यक्तियों ने खुफिया विभागों की खामियों और साथ ही नीतिगत विकल्पों की ओर इशारा किया है, जो कश्मीर की अंतर्निहित समस्याओं को दूर करने में विफल रहे हैं।

भारत की चिंता
पुलवामा हमले ने भारत के सुरक्षा कर्मियों, खुफिया एजेंसी और आंतरिक सुरक्षा के लिए एक नई चुनौती पैदा कर दी है, क्योंकि इन हमलों में इस्तेमाल की गयी रणनीति, तालिबान द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में इस्तेमाल की गयी रणनीति समान है।इस प्रकरण को दो दृष्टिकोणों से देखने की जरूरत है: पहला, घरेलू आतंक से आंतरिक खतरा, और दूसरा, क्षेत्रीय ताकतों द्वारा बाह्य खतरा।कश्मीरी स्थानीय लोगों से आंतरिक खतरा सरकार की अपनी नीतियों के कार्यान्वयन के संबंध में स्वयं सरकार के व्यवहार पर निर्भर है। केंद्र सरकार ने शिक्षा (जैसे, आईआईटी-जेईई पाठ्यक्रम), नए रोजगार के अवसर (कौशल विकास योजना, आदि) के माध्यम से क्षेत्र के युवाओं को सशक्त बनाने की दिशा में कई उपाय किए हैं।लेकिन परिणाम बहुत सकारात्मक नहीं हैं। होनहार युवाओं से लेकर स्कूल छोड़ने वाले और टेक्नोक्रेट – स्थानीय लोग आतंकवादी संगठनों में शामिल हो रहे हैं। प्रश्न है: क्यों शामिल हो रहे हैं? हमें कश्मीर में इस प्रवृत्ति को समझने के लिए एक व्यवहारिक दृष्टिकोण का उपयोग करना चाहिए। सतही स्तर पर, समस्या कश्मीर की स्वतंत्रता के लिए एक आंदोलन प्रतीत होती है। लेकिन एक अधिक गहन विश्लेषण से यह पता चलता है कि यह एक वैचारिक युद्ध भी है।
‘कश्मीरी युवाओं के दिमाग’ में उग्रवाद को कम करने के लिए सरकार को एक परिवर्तनात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। केंद्र और राज्य सरकारें इस्लामिक बुद्धिजीवियों को नीति निर्माण में शामिल करने और वहाबी के खिलाफ सूफी विचारधारा को बढ़ावा देने की कोशिश कर सकती थीं। कश्मीर में अशांति के लिए अन्य पहलू भी जिम्मेदार हैं। कट्टरपंथ के मामले में बेरोजगार युवा अत्यधिक असुरक्षित हैं। राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए कश्मीरियों को खुश करते हैं। सरकार (राज्यपाल शासन) में अस्थिरता, लोगों के लोकतांत्रिक अधिकार को कम करती है, जिससे संवैधानिक दृष्टिकोण में विश्वास की हानि होती है।
दूसरी ओर, बाह्य खतरा भारत के पिछड़े हिस्से में हुए विकास से जुड़ा हुआ है। जब आतंकवाद का समर्थन करने की बात आती है, तब पाकिस्तान इस क्षेत्र का मुख्य खिलाड़ी है। बाधा पैदा करने के लिए कश्मीर में उग्रवाद को प्रायोजित करना अपेक्षाकृत सस्ता और प्रभावी तरीका माना जाता है, साथ ही साथ देश के कमजोर दक्षिणी दिशा में अस्थिरता को भी कायम रखता है। कश्मीरी स्थानीय घुसपैठियों के लिए पाकिस्तान की ’सहायता’ प्रशिक्षण और रसद, वित्तीय और सैद्धांतिक समर्थन के दायरे में शामिल हैं। इन सब को व्यवस्थित करने की जिम्मेदारी आईएसआई की संचालन शाखा की होती है, जो कि दो उप-प्रभागों के माध्यम से संचालित किया जाता है: ज्वाइंट इंटेलीजेंस मिसलैनीअस (जेआईएम) और ज्वाइंट इंटेलीजेंस नॉर्थ (जेआईएन) सैन्य समर्थन के अलावा, कश्मीरी विद्रोहियों के वित्तपोषण में पाकिस्तान भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। भारत के अनुसंधान और विश्लेषण विंग (रॉ) के अनुसार, मुख्य आतंकवादी संगठनों पर आईएसआई का वार्षिक खर्च लगभग 250 मिलियन डॉलर है। ये वित्तपोषण विद्रोहियों के लिए वेतन (लगभग 10,000 रुपये प्रति माह), उनके परिवारों को सहायता, उच्च जोखिम वाले कार्यों के संचालन के लिए प्रोत्साहन और सूचना देने वालों को शामिल करते हैं। दूसरा पहलू अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी की घोषणा के साथ जुड़ा हुआ है। अफगानिस्तान का अधिकांश हिस्सा तालिबान के नियंत्रण में है; और भारत सरकार अफ़ग़ान सरकार और लोकतंत्र के आधुनिक लोकतांत्रिक तरीकों का साथ समर्थन करती है। पाकिस्तान अफगान-तालिबान की मदद से कश्मीर को अस्थिर करने के लिए इस स्थिति का फायदा उठाना चाहता है। पुलवामा हमला इस साझेदारी का संकेत है। भारत सरकार को इस क्षेत्र में आतंकवादी गतिविधियों को रोकने के लिए नए प्रयासों के बारे में सोचना चाहिए; और आतंकवादी संगठनों को नियंत्रित करने के लिए ईरान, रूस, चीन आदि जैसे विभिन्न सहयोगियों को शामिल करने का प्रयास करना चाहिए।
समाधान की ओर भारत और पाकिस्तान द्वारा एक दूसरे पर गोलीबारी बंद करने के समाधान के लिए एक समझौता तैयार कर मुख्य बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए; और कश्मीर में शांति स्थापित करना चाहिए। सबसे पहले, वहां की चुनी गयी सरकार, सेना, खुफिया, अलगाववादी और सभ्य समाज के विभिन्न सहयोगियों के साथ दोनों पक्षों को समयबद्ध सहयोग करने की आवश्यकता है; और घाटी में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास पर ध्यान देना चाहिए। दूसरा, भारत को सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम को निरस्त करके कश्मीर में मानवीय चिंताओं को दूर करने की आवश्यकता है; और इसे एक ऐसे वातावरण में परिवर्तित करने की आवश्यकता है जो निर्दोष कश्मीरियों के मानवाधिकारों को पहचानता हो और उनकी रक्षा करता हो। तीसरा, एक मजबूत कानून-व्यवस्था संरचना और उसके संचालन की आवश्यकता है। कश्मीर में व्यक्तिगत और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा की जानी चाहिए। चौथा, कश्मीरी युवाओं के लिए रोजगार की दिशा में निवेश किया जाना चाहिए।

इसे एक बार फिर से पृथ्वी का स्वर्ग बनाने के लिए भारत और पाकिस्तान को साथ आकर कश्मीर के उद्योग, कृषि और पर्यटन में निवेश करने की योजना बनाने की जरूरत है। पाँचवा, भारत, पाकिस्तान और कश्मीरी नेताओं तथा अलगाववादियों के बीच एक समझौते के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को परिभाषित किया जाना चाहिए। भारत और पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र की मदद से अंतर्राष्ट्रीय सीमा का सीमांकन भी करना चाहिए।
आखिरकार, मानव ही है जो पृथ्वी को स्वर्ग बनाते हैं। इसलिए, कश्मीरियों की शांति और समृद्धि की आकाँक्षाओं का सम्मान किया जाना चाहिए।

 

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